बस्ती, काव्य गोष्ठी में विनोद उपाध्याय द्वारा गजल
इस दौरे मुफलिसी में मुहब्बत न हो सकी।
उनके क़रीब जाने की हिम्मत न हो सकी।।
अपनों की बात सुनने की फुर्सत न हो सकी।
घर में बड़े बुजुर्गों की खिदमत न हो सकी।।
हर लम्हा जी रहा हूं मुहब्बत के वास्ते ।
फिर भी किसी के दिल पे हुकूमत न हो सकी।।
मानिन्दे ख़ुशबू बस गए सांसों में जो मेरी
उनके बग़ैर जीने की आदत न हो सकी।।
हमराज बन के जिसने छला उम्र भर मुझे ।
उसके खिलाफ कोई शिकायत न हो सकी।।
दुनिया के मसअलों में तू उलझा रहा सदा
दिल से कभी ख़ुदा की इबादत न हो सकी।।
ये दिल धड़क रहा है तुम्हारे ही वास्ते।
इस दिलकी धड़कनों से सियासत न हो सकी।।
विनोद उपाध्याय हर्षित
बस्ती
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